कुछ किस्से चार धाम के

पहाड़ के प्रति प्रेम कब पनपा,  ये ठीक ठीक याद नहीं। जब पहली बार यह मुहावरा कानों में पड़ा कि अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे। तब लगा था कि पहाड़ जरूर आसमान तक होगा तभी ऊंट उसके नीचे आकर अपने को छोटा माना होगा। याद है बचपन में एक बार ननिहाल फरदा, जो मुंगेर से लगभग 7 किलोमीटर दूर है, वहां मैं और मेरे भाई ने योजना बनाई कि हमलोग चल कर पहाड़ तक जाते हैं। मुंगेर जिले में भी पहाड़ हैं, पर अत्यधिक ऊँचाई वाले नहीं। हमलोग अकेले खेत से होकर जाने लगे। हमलोग चलते जाते और पहाड़ हमसे दूर होता जाता। रास्ते में सांप बिच्छू भी दिखाई दिया था। चलते-चलते हमलोगों को रामदीप मिला, जो हमारे नाना के खेतों और घर की रखवाली करता है। उसने हमलोगों को डांट लगाई और घर लौट जाने को कहा। उसने बताया पहाड़ यहां से काफी दूर है और रात हो जाएगी पहुंचते हुए। जब पिछले साल 30 सितम्बर को केदारनाथ जाने जा अवसर मिला, तो ऊंचे ऊंचे पहाड़ों को देखकर आंखें विस्मय में फैल जाएं। डर भी लगे कि अगर एक चट्टान भी खिसक गई तो क्या होगा!

फिलहाल वहां के कुछ अनुभव ---




जब 2013 में केदारनाथ में जल प्रलय की खबरें आईं थी, तभी मन में यह सवाल उठा था कि क्या हिम के घर यानी हिमालय की चोटी पर स्थित केदारनाथ धाम के दर्शन अब कभी कर पाऊंगी?, पर जब वहां सब कुछ सामान्य हो गया तो मन ने वहां जाने का निश्चय कर लिया। उत्तर भारत में यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ की यात्रा को ही चार धाम की यात्रा माना जाता है। सबसे पहले तो चार धाम की यात्रा के लिए 10-12 दिन का समय निकालें, क्योंकि पहाड़ी रास्ता होने के कारण कुछ किलोमीटर की यात्रा में भी दिन भर का समय लग जाता है। 
हालांकि कपाट अप्रैल के अंतिम सप्ताह (इस बार-28 अप्रैल) या मई के 1सप्ताह में खुलता है, लेकिन उस समय श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ पड़ता है। इसलिए हमलोगों ने ऑकटूबर  के पहले सप्ताह में वहां जाने का  निर्णय लिया। उस समय वहां न बहुत अधिक ठंढी रहती है और न लोगों की रेलमपेल।

रोमांचक सफर की शुरुआत
हम कुल 9 लोग अलंघ्य प्रतीत होने वाले पहाड़ों पर बसे देवों और कुदरत के अद्भुत नजारों से रूबरू होने के लिए  रोमांचक यात्रा पर निकल गए। 30 सितंबर को 10 बजे हमारी प्राइवेट गाड़ी इंदिरापुरम से ऋषिकेश की ओर चल पड़ी। ध्यान दें कि समूह में यात्रा करने पर रहने और खाने का खर्च कम हो जाता है। यदि आप यात्रा रेल से करना चाहते हैं, तो चारों धाम के लिए नजदीकी रेलवे स्टेशन ऋषिकेश ही है और हवाई अड्डा जॉली ग्रांट। शाम 6 बजे जब हम ऋषिकेश पहुंच गए, तो तय हुआ कि राम झूला के पास गंगा आरती देख ली जाए। क्योंकि गंगा कुटीर आश्रम जहां हम रुके थे, पास में ही था। गंगा दर्शन के बाद जब हमलोगों ने शुद्ध और सात्विक भोजन चखा, तो लगा परम आनंद तो इसी सुस्वादु भोजन में है। वहां हमें एक से बढ़कर एक व्यंजन खाने को मिले। वह भी गरमा गर्म। एक अच्छी व्यवस्था वहां यह भी थी कि खाने के बाद जूठे बर्तन को खुद ही धोना था। सुबह नाश्ते के बाद 9 बजे तक हमलोग यात्रा पर निकल पड़े यह जानने के बावजूद कि पहला धाम यमुनोत्री है। फिर दूसरे धाम गंगोत्री की यात्रा के बाद केदारनाथ और बद्रीनाथ की यात्रा की जाती है। ड्राइवर ने समय बचाने के उद्देश्य से पहले बद्रीनाथ की ओर गाड़ी मोड़ दी, लेकिन रास्ते मे लैंड स्लाइड होने के कारण हमें रास्ता बंद होने का समाचार मिला और हम फिर केदारनाथ के रास्ते पर चल पड़े। 6.30 बजे हमलोग सोनप्रयाग पहुंच गए और एक होटल खोज कर वहां रुकना तय किया। इन दिनों होटल और केदारनाथ की  यात्रा के लिए गौरीकुंड से पहले फाटा हवाई अड्डे से हेलीकॉप्टर की बुकिंग की जाती है। ऐसा नहीं करने के कारण हमें फायदा यह हुआ कि हमलोगों ने खुद जांच परख कर सोनप्रयाग में होटल ढूंढा, जिससे यात्रा में शामिल बुजुर्गों को बहुत ऊंचाई पर स्थित होटल में नहीं जाना पड़ा। केदारनाथ से वापिस होने पर हमलोगों ने सुना कि मौसम खराब होने के कारण केदारनाथ चोटी पर यात्रियों द्वारा ऑनलाइन बुक हुए होटल और हेलीकॉप्टर की सीट बुकिंग के ज्यादातर पैसे नहीं लौट पाए।

प्रकृति के बीच ईश्वर से साक्षात्कार
 सुबह छह बजे वहीं पास स्थित केदारनाथ ट्रेवलर आइडेंटिफिकेशन सेंटर में हमलोगों की यात्रा की टिकटें बुक हुईं और घोड़े-पिट्ठू की सवारी भी। चूंकि प्राइवेट वाहन आगे नहीं जाती इसलिए हम सार्वजनिक गाड़ी से गौरी कुंड पहुंचे। गौरीकुंड से मंदिर तक की 14 किलोमीटर यात्रा या तो पैदल या फिर घोड़े-खच्चर और पिट्ठू से की जाती है। स्थानीय लोगों ने बताया कि ऑक्सीजन सिलिंडर लेने की बजाय रूमाल में कपूर बांधकर ऊपर चले जाएं, जिसे बार-बार सूंघते रहें। हमलोगों ने कई कपूर के जो पैकेट खरीदे, उनमें से कुछ नकली भी थे। घोड़े ने हमें जहां उतारा, पास ही हैलीपैड भी था। तभी कुछ पिट्ठू वाले पहुंच गए और उन्होंने बताया कि यहां से काफी चढ़ाव है, इसलिये बुजुर्गों के लिए यात्रा काफी कठिन होगी!, हमलोगों में भी यह उत्सुकता जगी  कि किस तरह एक मानव दूसरे मानव की पीठ पर आरूढ़ होकर सवारी करता है। इस तरह हम सभी ने लगभग 1 किलोमीटर की यात्रा पिठ्ठू पर की। जैसे-जैसे हम मंदिर के करीब यानी ऊंचाई पर पहुंच रहे थे वैसे-वैसे हमें ईश्वर की समीपता का एहसास हो रहा था। कभी बादलों पर भोले शंकर का अक्स उभरता तो कभी उनके त्रिशूल के चित्र का एहसास होता । पहाड़ों पर  पंक्तिबद्ध उगे चीर और दूसरे पहाड़ी पेड़ मानो हम मानवों को अनुशासन का पाठ पढ़ा रहे हों। अनजाने नामों वाले मेडिसिनल प्लांट तो हमारी नाकों को तीखी सुगंध से भर रहे थे। कभी चलते -चलते घोड़े जब बिल्कुल किनारे चले आते, तो लगता कि अभी काल देव यमराज से साक्षात्कार हो जाएगा। घोड़े अपनी गति से चलते जा रहे थे और अपने मन मुताबिक रास्ते भर रखे गए बर्तनों के पानी और भोजन (घास) भी लेते जा रहे थे। ये देखकर अच्छा लगा कि  रास्ते भर sbi और एक्सिस के बोर्ड टंगे थे, जिसमें लिखा था कि यहां जल्द ही एटीएम की सेवा शुरू होगी।
रास्ते भर अस्थायी शौचालय भी बने हुए थे, जो साफ सुथरे भी थे। बरबस ही प्रधानमंत्री का यह कथन याद हो आया-  देवालय से पहले शौचालय।
सर्पीले रास्ते पर घोड़े से चढ़ाई करते वक्त हम सभी को लक्ष्मीबाई और दूसरे महान घुड़सवार योद्धा भी खूब याद आये, क्योंकि बिना अभ्यास के घोड़े की सवारी करना बिना जानकारी के भारी भड़कम हथियार लेकर युद्ध मैदान में कूदने जैसा लग रहा था। कई दिन लग गए घोड़े चढ़ने के कारण हुए दर्द को ठीक होने में। पहले से ऑनलाइन बुक  किये गए हेलीकॉप्टर से आप कुछ मिनटों  और कम पैसों में मंदिर तो पहुंच तो सकते हैं, लेकिन प्रकृति की सुंदरता से वंचित रह सकते हैं। रास्ते भर ढेर सारी ढाबे, दुकानें सजी मिल रही थीं और खाने-पीने के सामान भी, लेकिन सभी बहुत महंगे। एक तो ढुलाई खर्च अधिक होने तो दूसरी तरफ लोगों का अधिक से अधिक कमाई कर लेने का लालच भी इसका कारण हो सकता है। मैंने भी 1 पानी की बोतल 100 रूपये की खरीदी। मंदिर के पास होटल भी आपको काफी महंगे मिलेंगे। एक अच्छी बात यह पता चली कि ज्यादातर घोड़े और पिठ्ठू की सवारी ले जाने वाले युवा प्रोफेशनल कोर्स कर रहे थे। कोई mba कर रहा था, तो कोई फोटोग्राफी का कोर्स।  वह भी ओपन स्कूल के माध्यम से। जब सीजन शुरू होता है तो अपने माँ-पिता का हाथ बंटाने के लिए युवा इस काम से जुड़ जाते हैं। रुद्रप्रयाग जिले स्थित केदारनाथ धाम 11740 फीट की ऊंचाई पर है। रास्ते में जगह-जगह पहाड़ों से उतरती दुग्ध धवल मंदाकिनी किसी योगिनी समान प्रतीत हो रही थी। कत्यूरी शैली में पत्थरों से बने मंदिर के प्रवेश द्वार पर जब पहुंची, तो अचानक यह ख्याल आ गया कि पांडवों के वंशज जनमेजय के बनाये इस मंदिर का जीर्णोद्धार आदि शंकराचार्य ने क्यों कराया था? दरअसल इसकी पृष्ठभूमि के बर्फीले पहाड़ सहज ही आपको आध्यात्मिकता से जोड़ देते हैं।  हम यात्रा सीजन के अंतिम पड़ाव में यहां पहुंचे थे, फिर भी दर्शनार्थियों की लंबी कतार लगी थी। मैंने जब मंदिर प्रांगण में  मौजूद सेना के एक अधिकारी से बताया कि हमारी झुंड में तीन बुजुर्ग हैं और डायबिटीज और ब्लड प्रेशर के मरीज भी  हैं, तो उन्होंने आई कार्ड जांच कर मुख्य पुजारी से बताया और हमारी बिना लाइन में लगे बाबा- दर्शन की व्यवस्था करा दी। मंदिर में मैंने जैसे ही अपना माथा नंदी रूप में विराजे बाबा केदारनाथ से लगाया तो यह एहसास हुआ कि मैं शून्य में हूं, मेरे आसपास कुछ भी शेष नहीं रहा और मेरा शरीर बिंदु मात्र में परिवर्तित हो रहा है। ऑक्सीजन की कमी थी या ईश्वर मिलन का प्रभाव कुछ सेकंड के लिए मैं अचेत समान हो गई थी। रास्ते में भी एक दो बार ऑक्सीजन की कमी से सिर घूमने जैसा आभास हुआ था। दर्शन के बाद हम सभी ने चाय- कॉफी ली और अपने अपने-अपने तरीके से मंदिर प्रांगण को निहारा। चारों ओर फैली बर्फ और विशाल पहाड़ को अपनी-अपनी आंखों के आगोश में भर लिया।

धार्मिक नहीं प्रकृति के बीच जाने की हो यात्रा
 किसी विशेषज्ञ ने बताया था कि ऑक्सीजन की कमी और तापमान घटने के कारण  रात में कुछ लोग अचेत भी हो जाते हैं।इसलिए होटलों में रुकने की बजाय हमलोग वापसी के रास्ते पर बढ़ चले। एक बात मैं बताना चाहूंगी कि इस यात्रा को बहुत अधिक धर्म से न जोड़ें, बल्कि इसे 'नैसर्गिक सुंदरता निहारने की यात्रा' नाम दें। क्योंकि धाम में आपको पिछले जन्म और इस जन्म के पाप धोने वाले पंडे-पुजारी कदम-कदम पर मिल जाएंगे और हजारों रुपये ठग ले जाएंगे। प्रसाद भी इतने महंगे मिलेंगे कि पूछिये ही मत। कुदरत की लीला देखिये कि जैसे ही हम घोड़े पर सवार हुए कि बारिश शुरू हो गई वह भी तेज। लेकिन हम आगे बढ़ते रहे। घोड़े खींचने वाले ने हमें आश्वस्त किया कि बारिश के बाद घोड़े सधे कदमों से आगे बढ़ते हैं और वे फिसलते भी नहीं। घुमावदार सीढ़ी वाले रास्ते पर। इन सीढ़ियों पर पैदल यात्री भी चलते हैं। आराम करने के लिए जगह-जगह आरामगाह भी बनाये गए हैं। कुछ देर बाद बारिश थम गई और कड़क धूप निकल आई। आश्चर्य हमारे गीले हो चुके कपड़े भी सूख गए। वापसी में धुँधलका हो गया था। पहाड़ पर उगे जंगल शिव जी की जटा होने का एहसास करा रहे थे।  लगा अभी शिव शंकर लंबे डग भरते पहाड़ को लांघते नजर आ जाएंगे। हम नीचे पहुंचे तो रात हो चुकी थी। फिर गौरीकुंड से लौटकर हम सोनप्रयाग होटल में रुके। 

बद्रीनाथ के रास्ते पर
सुबह हमलोग बद्रीनाथ धाम जाने के रास्ते पर थे। पहाड़ के रास्ते घुमावदार होते हैं, इसलिए समय अधिक लग रहा था। हम लोम्बार्ड नाम के स्थान से कुछ किलोमीटर आगे पीपलकोठी में रुके। सुबह हल्की बारिश हो रही थी। लगा कि पहाड़ के एक-एक चट्टान ने स्नान कर लिया हो। प्रकृति के विहंगम दृश्यों का अवलोकन करते हुए हम निकल पड़े बद्रीधाम की ओर। गाड़ी काफी ऊंचे-नीचे रास्‍तों से गुजर रही थी। चारों धाम को एक सड़क से जोड़ने की परियोजना पर अभी काम चल रहा है। इसलिए पहाड़ों के बीच समतल सड़क बनाने के लिए इनमें जगह-जगह डायनामाइट भी लगाए जा रहे थे। बड़े- बड़े चट्टानों के खिसकने के कारण रास्ते अवरुद्ध हो जा रहे थे, एक बार तो एक चट्टान को खाई में गिर कर तिनके के रूप में बदलते हुए भी हमलोगों ने देखा। जोशीमठ से आगे बद्रीनाथ का रास्ता तो दुर्गम ही लगा। तभी तो तकनीक और सुविधाओं के अभाव वाले जमाने में चार धाम की यात्रा पर निकले लोग इसे प्रयाण यात्रा मानते थे।  कुछ किलोमीटर आगे फूलों की घाटी और हेमकुंड भी मिलते हैं। खूबसूरत घाटी के बीच अलकनंदा नदी के किनारे स्थित है भगवान विष्णु का धाम बद्रीनाथ।  समुद्र तल से लगभग 3133 मीटर की ऊंचाई पर विराजते हैं विष्णु।  मंदिर के पास गर्म पानी का कुंड भी है। भारत-चीन सीमा पर स्थित माना गांव भी यहां से मात्र 2 किलोमीटर की दूरी पर है। गर्मी में यात्रा पर जाने के बावजूद अपने साथ हल्के गर्म कपड़े जरूर रखें, क्योंकि कभी-भी यहां मौसम बदल सकता है। 

भागीरथी का उद्गम स्थल
बद्रीनाथ धाम की यात्रा कर हम थोड़ा सुस्ताने के बाद दोपहर में ही निकल पड़े गंगोत्री की ओर। यहां पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई, इसलिए हमलोग होटल में रुक गए। मौसम काफी सर्द था और तेज हवाएं भी चल रहीं थी। सुबह हम पैदल ही 1 किलोमीटर दूर  गंगोत्री के गंगा मंदिर की ओर चल पड़े। मंदिर समुद्र तल से 3200 मीटर की ऊंचाई पर है, जो सड़क मार्ग से जुड़ा है। विग्रह दर्शन से पहले जब हमने बगल में कलकल कर बह रही गंगा में हाथ डाले तो बर्फ समान बनी गंगा ने पूरे शरीर में सिहरन पैदा कर दी। अन्य यात्रियों की तरह हमलोगों ने भी अपने-अपने बोतलों में भगीरथी को भर लिया, जो आज भी गंगोत्री यात्रा की याद दिलाता है।  गंगोत्री को भागीरथी नदी का उद्गम स्थल माना जाता है। हालांकि भागीरथी का मूल उद्गम तो गोमुख ग्लेशियर है, जिसके लिए गंगोत्री से आगे 19 किलोमीटर की कठिन चढ़ाई करनी पड़ती है। गंगोत्री मंदिर के पास ही हम भगीरथ शिला भी देखने गए। कहते हैं कि यहीं भगीरथ ने धरती पर गंगा को लाने के लिए तप किया था। 

जहां से निकलती है यमुना
समुद्र तल से 4421 मीटर की ऊंचाई पर है यमुना नदी का उद्गम स्थल यमुनोत्री। ऋषिकेश से आगे चंबा होते हुए यहां पहुंचा जा सकता है। पूरे रास्ते खूबसूरत दृश्य हमारा मन मोहते रहे। रवाई घाटी, बरकोट, जनकचट्टी तक की यात्रा प्रकृति के अप्रतिम सौंदर्य को निहारते हुए आप करते हैं। जनकचट्टी से आगे आठ किलोमीटर की यात्रा पैदल या घोड़े-खच्चर या पिट्ठू पर करने के बाद आप यमुनोत्री मंदिर के दर्शन कर सकते हैं। हमारे साथ गए बुजुर्ग यात्रियों की तबियत खराब होने मसलन सांस फूलने-उखड़ने, अस्थमा, ब्लड प्रेशर की समस्या होने के कारण हमलोग बिना यमुनोत्री दर्शन किये वापस लौट आये। वापसी में ऋषिकेश में गंगा दर्शन करने के बाद हरिद्वार की विशाल गंगा का जल अपनी अंजुरी में भरकर अपने ऊपर डाला और सुखद यात्रा की यादों को समेटे अपने-अपने घरोंदों की ओर चल पड़े। यह स्मृति विशेष यात्रा तब और रोमांचक हो गई जब ऋषिकेश के रास्ते में हमारी गाड़ी के पीछे का एक पहिया खुलकर लगभग आधा किलोमीटर आगे चला गया, लेकिन गाड़ी पलटी नहीं। उस समय हमलोग टिहरी बांध के किनारे  से गुजर रहे थे। हमलोगों ने वहां भी कुदरत के नजारों को अपनी यादों की पेटी में भरा और अपने गंतव्य पर बढ़ चले...।


Comments

Popular posts from this blog

Sri Sri Ravi Shankar: गलतियों से सीखकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहें विद्यार्थी

Buddha Purnima 2025: आध्यात्मिक चिंतन का दिन है बुद्ध पूर्णिमा

Lord Hanuman: क्यों हनुमानजी चिरंजीवी देवता कहलाते हैं