अंगद के पैर के समान अडिग है रंगमंच

 

अडिग है रंगमंच की दुनिया...

 

हमारे चारों ओर मनोरंजन का मायाजाल फैला हुआ है। फिर भी हम नाटक और रंगमंच की दुनिया को लुप्तप्राय नहीं मान सकते हैं। यह विधा चुनौतियों से मुकाबला करते हुए अडिग खड़ा है,  क्योंकि इसे जिलाये रखने का जिम्मा युवा नाटककारों ने अपने कंधों पर उठा लिया है।

 

 

'अगर कुछ कहने की छटपटाहट है, तो उसे मंच पर बोल दो। बाद में किंतु-परंतु न कहना। यहां रीटेक नहीं हो सकता। तुम्हें दर्शकों से सीधा संवाद करना है। नाटकों की दुनिया छोटी जरूर है, लेकिन समाज को बदलने की ताकत रखती है।Ó ब्रिटिश थियेटर प्रोड्यूसर और डायरेक्टर इयान डिकेंस ने एक बार अपने कलाकारों को प्रोत्साहित करते हुए कहा था। पिछले दिनों (4-19 जनवरी) दिल्ली में भारत रंग महोत्सव (भारंगम) आयोजित किया गया। इसमें 7 विदेशी, 16 लोक कलाओं पर आधारित नाटकों के साथ-साथ कुल 71 नाटकों का मंचन हुआ। मार्केटिंग मैनेजर घोषित करते हैं कि पहले दिन टिकटों से 1.50 लाख रुपए से अधिक की कमाई हुई। समीक्षक लाख दावा करें कि भारत में थियेटरों की दुनिया अवसान पर है, पर दिल्ली के अलग-अलग थियेटर ऑडिटोरियम में युवा नाटककारों और युवा दर्शकों की भीड़ देखकर तो यह पूर्वानुमान पूरी तरह ध्वस्त हो जाता है। बुजुर्ग नाटककार भले ही चिंता जताएं, लेकिन युवा नाटककार जोश से लबरेज हैं। रंगमंच को सफल बनाने की उनकी कोशिश जारी है।  

 भारत में नाटक और थियेटर का इतिहास काफी समृद्ध है। कालिदास के नाटक 'शकुंतलाÓ और 'मेघदूतÓ सदियों पुराने नाटक माने जाते हैं। 2000 साल पुरानी केरल की 'कुटियट्टमÓ विश्व की सबसे पुरानी जीवित थियेटर परंपराओं में से एक है। भले ही हमारे चारों ओर मल्टीप्लेक्स, 3 डी सिनेमा, एंड्रॉयड मोबाइल, सोशल नेटवर्किंग साइट्स का मायाजाल फैला हो, लेकिन यह चुनौतियों को झेलने में पूरी तरह सक्षम है। युवा नाटककारों ने तकनीक को अवरोध नहीं, बल्कि  अपना सहायक बना लिया है। पैसा, लोकप्रियता कम होने के बावजूद वे सुबह जागकर थियेटर के लिए काम करना शुरू कर देते हैं। जीविका चलाने के लिए वे भले ही सिनेमा, सीरियल्स का सहारा लें, लेकिन उनके प्राण बसते हैं नाटकों में।

 

 चुनौतियां हैं भारी

विस्थापन के दर्द पर आधारित है नाटक 'जहाजिनÓ। छत्तीसगढ़ का पंडवाणी लोकसंगीत। थियेटर की ज्यादातर प्रस्तुतियां सामाजिक सरोकार वाली होती हैं। इसे सुंदर और सफल बनाने के लिए इससे जुड़े प्रत्येक लोग अपना सब-कुछ झोंक देते हैं। पर इस रंगीली दुनिया के समक्ष चुनौतियां भी कम नहीं हैं। थियेटर कलाकार अमिताभ श्रीवास्तव कहते हैं कि आज थियेटर के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है फाइनेंस की। एक तो दर्शकों की संख्या बहुत कम है। दूसरी ओर दर्शक टिकट की बजाय पास पर नाटक देखना अधिक पसंद करते हैं। ऑडिटोरियम का किराया भी बहुत अधिक होता है। अगर 4 शो करने के बाद सीटें खाली रहती हैं, तो फिर किराया अखरने लगता है। कमाई कम होने के कारण इससे जुड़े कलाकार मनोरंजन की दूसरी विधाओं, जैसे-टीवी, सिनेमा आदि की ओर पलायन कर जाते हैं। भारंगम में जम्मू और कश्मीर की लोक कला भांड पाथेर (गोसैन पाथेर) का प्रर्दशन करने वाले डायरेक्टर और एक्टर एम.के. रैना भी रंगमंच की स्थिति पर चिंतित हैं। वे कहते हैं कि आर्थिक कमी के चलते सर्वाइवल की समस्या हो रही है। महाराष्टï्र की लोककला 'दसावतारÓ के संचालक तुलसी बेहरे कहते हैं कि थियेटर हो या लोककला, अब तक अपने-आपको बाजार से जोड़ नहीं पाई है। अब तक यह पुराने ढर्रे पर ही चल रही है। घिसी-पिटी कहानियां और पुराने संवाद के बल पर। जहाजिन (विस्थापन की समस्या पर आधारित) नाटक के डायरेक्टर रणधीर कुमार कहते हैं कि एक खास वर्ग आज भी नाटक देखता है, जिससे काम चलाने लायक आमदनी तो हो जाती है, लेकिन लोगों में थियेटर के प्रति वैचारिक प्रतिबद्धता का ह्वïास हुआ है। लोग इसके माध्यम से कम से कम समय में लोकप्रिय होना चाहते हैं, जिसके लिए कलाकार हर हथकंडे अपनाने के लिए तैयार रहते हैं। यह सच है कि कि टीवी, सिनेमा से हमें चुनौती मिल रही है। इससे हमारा कल्चर और ट्रेडिशन दोनों प्रभावित हुआ है, पर हमें भी दर्शकों को थियेटर तक खींचने के लिए चीजों को प्रजेंटेबल बनाना होगा।

 

मुकाबला है दमदार

थियेटर के बुजुर्ग हो चुके कलाकारों, निर्देशकों के माथे पर शिकन दिखाई देते हैं। उन्हें लगता है कि ग्लोबलाइजेशन से पहले थियेटर का खुशनुमा दौर था, जो अब बीत चुका है।  डिजिटल एंटरटेनमेंट के युग से जहां बुजुर्ग पीढ़ी घबराई हुई है, वहीं युवा कलाकार, निर्देशक इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए कमर कस चुके हैं। थियेटर आर्टिस्ट आकाश कुमार कहते हैं कि भले ही नाटकों से हमारे घर-परिवार का खर्चा नहीं चल पाता है, लेकिन हम नाटक में अभिनय की भूख मिटाने के लिए इससे जुड़े रहेंगे। आकाश खुद एक सोशल नेटवर्किंग साइट से जुड़े हुए हैं। उन्होंने अपने ग्रुप 'रागÓ का भी फेसबुक पर पेज बनाया हुआ है। इसके माध्यम से उन्होंने अपने सभी साथी कलाकारों को भी जोड़ लिया है। वे कहते हैं कि मॉडर्न टेक्निक्स से डरने की बजाय उसे अपना सहायक बना लें। डायरेक्टर रणधीर कहते हैं कि थियेटर ने खुद को कमर्शियलाइज करने की पहल कर दी है। गुडग़ांव में एक थियेटर 'किंगडम ऑफ ड्रीमÓ प्ले के दौरान कई ब्रेक करता है, जिसमें श्यामक डावर के कोरियोग्राफ गाने दिखाए जाते हैं। ऑडिटोरियम में खाने-पीने के सामान भी उपलब्ध कराए जाते हैं। हालांकि यह प्रयास थियेटर के मूल रूप से हमें भटकाता है, लेकिन न चाहते हुए भी हमें इस चलन को स्वीकारना होगा। एम.के. रैना भी सूफी संतों पर आधारित भांड पाथेर को नए परिदृश्य में प्रस्तुत करने की वकालत करते हैं। अब तो सरकार और गैर सरकारी संस्थाएं भी थियेटर की मदद को आगे आ रही हैं।

 

 लोककला के मुरीद

दिल्ली के नाटककार अभिजीत सेनगुप्ता कहते हैं, 'हिंदी भाषी राज्यों, खासकर बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश में नाटक देखनेवालों का प्रतिशत शून्य से भी कम होगाÓ। वे कहते हैं कि जब तक परिवारों के महीने के बजट में लोक कला पर आधारित या आम लोगों से जुड़े मुद्दों पर आधारित नाटक देखने के लिए 200 रुपए अलग नहीं रखे जाएंगे, रंगमंच किसी की जिंदगी का हिस्सा नहीं बन पाएगा। आज भी इसे उच्च मध्यम वर्गीय या बड़े शहरों के मनोरंजन के स्रोत के रूप में जाना जाता है। आम लोगों के मुद्दों को उठाने वाली यह कला उन्हीं से दूर है। अभिजीत उन लोगों में से एक हैं, जो मानते हैं कि थियेटर का भविष्य अंधकारमय है। पर भारंगम में भाग लेने वाले युवा लोक नाटककारों के उत्साह को देखकर कहीं से भी नहीं लगता है कि लोक नाटक समय के साथ विलुप्त हो जाएंगे। उन्होंने समय की मांग को देखते हुए अपनी कला में सापेक्ष बदलाव कर लिया है। छत्तीसगढ़ के लोक संगीत पंडवाणी से जुड़ी हुई गायिका शांति बाई चेलक कहती हैं कि मुझे कहीं से भी नहीं लगता है कि यह लोकगायन विलुप्त हो रहा है। छत्तीसगढ़ के अलावा, मुझे बड़े-बड़े शहरों खासकर दिल्ली से सालभर में गायन के लिए कई बुलावे आते हैं। पहले मैं सिर्फ द्वापर युग के पांडवों के बारे में गाती थी, लेकिन अब वर्तमान संदर्भ को ध्यान में रखकर गाती हूं। लखनऊ की लोक कला नौटंकी से जुड़े नाटककार राधामोहन सवाल करते हैं कि अगर आपको यंग जेनरेशन से खुद को जोडऩा है, तो उनकी रुचि को ध्यान में रखना होगा। अभी आप कलियुग में जी रहे हैं और बात करेंगे त्रेता और द्वापर युग की, तो कैसे बात बनेगी? मेघालय की आरती लेपत्स्याने, जो एनएसडी में मेघालय की पहली महिला स्टूडेंट हैं, चाहती हैं कि वे अंग्रेजी और अपनी भाषा के अलावा, हिंदी लोक नाटकों में भी काम करें। वे कहती हैं कि इससे उन्हें देश की एक लोकसंस्कृति जानने का अवसर मिलेगा।

 

सारे जहां से अच्छा...

अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन, इजरायल, चीन आदि देशों में थियेटर का अपना एक वर्ग है। विदेश के थियेटर न दर्शकों की कमी से जूझते हैं और न ही पैसों की कमी से। 'द वुमेन हू डिड नॉट वॉन्ट टू कमÓ की डांसिंग आर्टिस्ट गेब्रिएल नियूहॉस कहती हैं कि जिन देशों में नाटक की विधा को संजीदगी से लिया गया, वहां के युवा वर्ग की सामाजिक सरोकारों की ओर सजगता ज्यादा है। टेक्निकल डेवलपमेंट्स अपनी जगह हैं, लेकिन सबसे जरूरी चीज है वर्तमान दौर में अच्छे और गहरे स्तर के नए नाटक, जो युवा दर्शकों को अंत तक बांधे रख सकें। दर्शक संपंत पाल कहते हैं कि वर्तमान दौर में अच्छे नाटकों का गहरा अभाव है। विजय तेंदुल्कर और ब्रेख़्त जैसे नाटककारों के बाद अब सतही और उथले नाटक देखने को मिल रहे हैं। इसे आप प्रशिक्षण की कमी मान सकते हैं। इस पर नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के निदेशक वामन केंद्रे कहते हैं कि वे हर राज्य में और हर भाषा में एनएसडी जैसे प्रशिक्षण संस्थान खोलने की कोशिश करना चाहते हैं। पाठ्यक्रम में नाट्य लेखन का स्वतंत्र कोर्स शुरू करने और पूरे देश में वर्कशॉप्स लगाने के भी वे हिमायती हैं। वहीं श्रीलंका के थियेटर डायरेक्टर और एक्टर धर्मश्री भंडारनायके, जो भारंगम में 'द ट्रोजन वुमनÓ नाटक लेकर आए हैं, कहते हैं कि भारत श्रीलंका की तुलना में बहुत आगे है। स्टोरी और तकनीक, दोनों स्तर पर। श्रीलंका में अब भी ट्रेडिशनल कहानियों पर आधारित नाटक बन रहे हैं, जबकि भारत में वर्तमान परिदृश्य को ध्यान में रखकर नाटक गढ़ा जा रहा है। उदाहरण के तौर पर 'जहाजिनÓ नाटक विस्थापन के दर्द पर आधारित है। बांध, नदी, फैक्टरी आदि के कारण यह भारत की सबसे बड़ी समस्या है। यही वजह है कि श्रीलंकाई कलाकार भारतीय नाटकों में काम करना चाहते हैं। अभिनेत्री मीना कुमारी, जो ट्रोजन वुमन में एक विधवा का रोल कर रही हैं, कहती हैं कि भारतीय नाटकों में काम करने पर प्रसिद्धि मिलती है। साथ ही, भारतीय फिल्मों में काम करने का अवसर भी। उन्होंने साउथ की कई फिल्मों में काम किया है।

 

पुराना है सिनेमा से रिश्ता

अनुपम खेर, ओम पुरी, फार्रुख शेख...। सिनेमा में थियेटर आर्टिस्टों की यह फेहरिस्त काफी लंबी है। जैसे ही हमें किसी चरित्र अभिनेता का मंजा हुआ अभिनय देखने को मिलता है, ये शब्द हमारे मुुंह से अनायास निकल जाते हैं- कहीं ये थियेटर आर्टिस्ट तो नहीं! थियेटर का मतलब ही हम गंभीर अभिनय से निकालते हैं। फिल्म अभिनेत्री ऋचा चड्ढा जो थियेटर आर्टिस्ट भी रह चुकी हैं, कहती हैं कि नाटकों में आपको काफी संभलकर अभिनय करना पड़ता है, क्योंकि आपको दर्शकों से सीधा संवाद करना पड़ता है। आपको एक ही तरह का अभिनय अलग-अलग शो में करना पड़ता है। थियेटर कलाकार न सिर्फ पैसे कमाने के लिए, बल्कि लोकप्रियता हासिल करने के लिए भी सिनेमा की ओर रुख करते हैं। एक्टर सुनील बिहारी कहते हैं कि अगर आप सिनेमा और सीरियल में छोटा रोल भी करते हैं, तो आम लोग आपको पहचानने लगते हैं,  लेकिन नाटकों में अभिनय करने से सच्चा सुकून मिलता है। यही वजह है कि कई कमर्शियल फिल्में करने के बाद नीतू चंद्रा ने 'उमराव जानÓ नाटक में मुख्य भूमिका निभाई। वे कहती हैं कि दर्शकों के सामने अभिनय कर मैं भाव-विभोर हूं। मैं पूरे विश्व में इसका मंचन करना चाहती हूं।

 

नाटकों के सूत्रधार लेखक

साहित्य ने ही नाटक और रंगमंच को जन्म दिया। अगर हम हिंदी साहित्य को लें, तो भारतेंदु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद, उपेंद्रनाथ अश्क, धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, लक्ष्मीनारायण लाल, भीष्म साहनी, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, अमृतराय, विष्णु प्रभाकर, गिरिराज किशोर आदि जैसे कई लेखक हैं।  लेकिन धीरे-धीरे लेखक और साहित्यकार नाटक और रंगमंच की दुनिया से कटते चले गए और बहुत से जाने-पहचाने लेखकों ने नाटक लिखना लगभग छोड़ ही दिया। सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात तो यह है कि पिछले पचास वर्षों में साहित्य अकादमी, भारतीय ज्ञानपीठ अथवा और कोई भी बड़ा पुरस्कार किसी हिंदी नाटक और नाटककार को नहीं दिया गया है। कथाकार सेरा यात्री कहते हैं कि हिंदी में अब कोई ऐसा मंच नहीं रह गया है, जहां हिंदी नाटक खेले जाएं। दरअसल, लोगों में भी अब ललित कला के लिए ललक नहीं रह गई है। अगर आप गौर करें, तो बंगाल, महाराष्टï्र, असम, छत्तीसगढ़ में भी स्थानीय बोलियों में नाटक लिखे जा रहे हैं और मंचित किए जा रहे हैं।  उन्हें भारी तादाद में दर्शक भी मिलते हैं। हम आर्थिक दृष्टिïकोण से देखें, तो 60 के दशक में कुछ लेखकों ने रेडियो के अलावा सिनेमा के लिए लिखना शुरू किया। दरअसल, नाटकों की अपेक्षा इस क्षेत्र में पैसा अधिक है। साथ ही, फिल्मों के लिए लिखने वाले लेखकों को प्रसिद्धि भी अधिक मिलती है।

 

बॉक्स

सर्वशक्तिमान विधा

मनोरंजन की यह विधा सर्वशक्तिमान है। इसका कोई मुकाबला नहीं है। यही वजह है कि फिल्म कलाकार भी इससे जुडऩे का मोह नहीं छोड़ पाते हैं। दर्शकों की भीड़ जुटाने के लिए थियेटर-प्रोड्यूसर को सीरियस के साथ-साथ हल्के-फुल्के नाटक भी बनाने होंगे। उसके प्रचार-प्रसार का तरीका भी बदलना होगा। मुझे आज भी याद है कि मैं जब हिसार में नाटक करता था, लोगों को बुला-बुलाकर उसके बारे में बताता था। परिणामस्वरूप लोग 3 सौ रुपए के टिकट भी हाथों-हाथ लेते थे।

यशपाल शर्मा, एक्टर

दर्शकों से संवाद

दर्शकों से सीधा संवाद होता है नाटकों में। इसलिए 'उमराव जानÓ जब मुझे ऑफर हुई थी, तो मैं इसे साइन करने से अपने-आपको रोक नहीं पाई। मैं चाहती हूं कि पूरे विश्व में इसके कई शो किए जाएं।

नीतू चंद्रा, एक्ट्रेस

थियेटर में अभिनय

मुझे थियेटर के लिए अभिनय करना बचपन से पसंद था। सात-8 साल की थी, तभी से करती आई हूं। दिल्ली के थियेटर के लिए कुछ खास नहीं किया, लेकिन मुंबई के थियेटर में खूब काम किया है।

रिचा चड्ढा

प्रचार-प्रसार पर जोर

नाटकों को बढ़ावा देने के लिए दिल्ली के अलावा, बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान आदि राज्यों में भी भारतीय रंग महोत्सव जैसे आयोजन की योजना है। देश के सर्वोत्कृष्टï नाटकों को यहां प्ले करने पर स्थानीय नाटककारों को काफी कुछ सीखने-समझने का अवसर मिलेगा। प्रचार-प्रसार करने से आम दर्शक भी जुड़ेंगे।

वामन केंद्रेपूर्व निदेशक, एनएसडी

 

बॉक्स

अंग्रेजों के शासनकाल में भारत की राजधानी जब कलकत्ता थी, वहां 1854 में पहली बार एक अंग्रेजी नाटक मंचित हुआ। इससे प्रेरित होकर कुछ शिक्षित भारतीयों में अपना रंगमंच बनाने की इच्छा जगी। मंदिरों में होनेवाले नृत्य, गीत आदि आम आदमी के मनोरंजन के साधन थे। इनके अलावा, रामायण तथा महाभारत जैसी धार्मिक कृतियों, पारंपरिक लोक नाटकों, हरिकथाओं, धार्मिक गीतों, जात्राओं जैसे पारंपरिक मंच प्रदर्शनों से भी लोग मनोरंजन करते थे। पारसी थियेटर से लोक रंगमंच का जन्म हुआ। एक समय धनी पारसियों ने नाटक कंपनी खोलने की पहल की। धीरे-धीरे यह मनोरंजन का एक लोकप्रिय माध्यम बनता चला गया। नाटक कंपनी में पृथ्वी थियेटर आज भी प्रसिद्ध है।

 

स्मिता

 

 

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