पौराणिक पात्र गांधारी की निष्पक्षता

 निष्पक्षता की मिसाल गांधारी


गांधारी की आत्मकथा उपन्यास के माध्यम से लेखक मनु शर्मा ने पौराणिक पात्र गांधारी के कई सुने-अनसुने पहलुओं को उजागर किया है। इसमें उन्होंने यह बताने की चेष्टा की है कि हर युग में कुछ स्त्रियां समय से आगे की सोच रखती हैं। पुत्र और पति मोह में वे उनके सारे कृत्यों और कथनों पर सिर झुकाकर स्वीकारोक्ति नहीं देती हैं। वे तमस के बीच पोषित होने के बावजूद अन्याय और अहंकार का प्रतिरोध करती हैं। अनेक ग्रंथों के शोध के बाद लेखक अपने उपन्यास-गांधारी की आत्मकथा में यह जानकारी देते हैं कि अपूर्व सुंदरी और सर्वगुणसंपन्न गांधारी पितृ-राज्य गांधार में शुभा नाम से जानी जाती थी। शिव की अनन्य उपासक शुभा माता-पिता की अत्यंत दुलारी थी। गांधार में ही रुद्राभिषेक के समय उन्हें सौ पुत्र की माता होने का वरदान मिला था। इसीलिए हस्तिनापुर के संरक्षक देवव्रत भीष्म उन्हें धृतराष्ट्र की जीवनसंगिनी बनने के लिए चुना और उन्हें नाम दिया गांधारी। पाठकों को यह भी नई जानकारी मिलेगी कि गांधार के राजपरिवार को मिले श्राप के कारण शकुनि में दैत्यांश था, शायद इसीलिए उसका व्यवहार कुटिल था। पाठकों को यह जानना भी कम रोचक नहीं लगेगा कि विवाह पूर्व गांधारी अपने पड़ोसी राज्य के राजकुमार से प्रेम करती थी और दोनों की शादी भी होने वाली थी। अपने राज्य और प्रजा की जान बचाने की खातिर गांधारी भीष्म के कहेनुसार धृतराष्ट्र के साथ विवाह-वेदी पर बैठ गई। हस्तिनापुर आकर आंखों पर पट्टी बांध लेने के बावजूद वह हमेशा कौरवों और पांडवों के बीच संतुलन स्थापित करने की कोशिश में लगी रहती। सौ पुत्रों की माता गांधारी ने अपने चिंतन में कभी पक्षपात को नहीं आने दिया। युद्ध के समय भी उसने अपने पुत्रों को कभी विजयी होने का आशीर्वाद नहीं दिया। उसकी यही निष्पक्षता उसे महान बनाता है। उनका जीवन कथ्य आज भी अनुकरणीय है।

पुस्तक: गांधारी की आत्मकथा

लेखक : मनु शर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन

मूल्य : पांच सौ रुपये

स्मिता    

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