क्या आप अपने बच्चे की सुनते हैं?
माता-पिता के रूप में बच्चे को गढ़ना अपने-आप में हमेशा से जटिल प्रक्रिया रही है. बदलते समय के साथ इसके तौर-तरीके भी बदल जाते हैं. हालांकि कई मामलों में लोग पुराना रवैया ही अख्तियार करते हैं, जिस कारण जेनरेशन गैप देखने को मिलता है. इसका असर सीधे-सीधे बच्चे के विकास को प्रभावित करता है. ऐसे में 'अंतरराष्ट्रीय अभिभावक दिवस' अभिभावकों की महत्वपूर्ण भूमिका की ओर ध्यान दिलाता है. आज के दौर में पेरेंटिंग सिर्फ पालन-पोषण नहीं, एक निरंतर सीखने और समझने की प्रक्रिया बन चुकी है. इंटरनेट, सोशल मीडिया के दौर में बच्चों के फिजिकल हेल्थ के साथ-साथ मेंटल हेल्थ बनाये रखना भी जरूरी है.
दशमी कक्षा की छात्र अंशिका की अपनी माता-पिता से यही शिकायत रहती है कि वे कभी उसकी बात सुनते नहीं हैं. दोनों के वर्किंग होने के कारण अंशिका की बात सुनने के लिए वक्त ही नहीं है. जर्नल ऑफ़ कोम्पेरेटिव फैमिली स्टडीज के अनुसार, अंशिका जैसी स्थिति कमोबेश ज्यादातर बच्चों की है. 80 प्रतिशत मामले में दोनों के वर्किंग होने के कारण बच्चों पर समय देना कठिन हो गया है माता-पिता उनकी बात सुनाने की बजाय बच्चों के रिश्ते को टेकन फॉर ग्रांटेड लेने लगे हैं
माइंडसेट कोच और पेरेंटिंग एक्सपर्ट बिनीता यादव बताती हैं, ‘हमारे यहां कई बच्चों के केसेज आते हैं, जिनमें पेरेंट्स बच्चों पर समय नहीं दे पाते हैं और बच्चा क्रोध, घबराहट, चिंता, अवसाद जैसी समस्याओं से ग्रस्त होने लगता है. दरअसल बच्चों के जीवन में पेरेंटिंग की अहम भूमिका होती है. पेरेंटिंग एक ऐसी प्रक्रिया है, जो बच्चे के विकास में मदद करती है और एक नवजात शिशु को वयस्क होने तक में मदद करती है. बच्चों के पालन-पोषण और उसे अपने जीवन में स्वतंत्र, खुश और सफल व्यक्तित्व बनने के लिए मार्गदर्शन भी देती है.
कहा भी गया है, "बच्चे दर्पण की तरह होते हैं, वे अपने माता-पिता का प्रतिबिंब होते हैं." बच्चे की परवरिश करते समय माता-पिता अपने दैनिक जीवन में जो कुछ भी करते हैं, उसका असर उनके बच्चे के व्यवहार पर भी पड़ता है. बच्चे अपने जीवन में भी वही व्यवहार करने लगते हैं.
इसलिए बच्चों के विकास के लिए पेरेंटिंग तकनीक बहुत ज़रूरी है, चाहे वह पारंपरिक हो या आधुनिक. यह बच्चों के एक जिम्मेदार नागरिक बनने में काफी मददगार होते हैं.
बिनीता यादव के अनुसार, पहले एक ही छत के नीचे कई पीढ़ियां संयुक्त परिवार के रूप में रहती थीं. इससे न सिर्फ एक-दूसरे का मजबूत साथ मिलता था, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक निरंतरता और साझा जिम्मेदारियां जैसे लाभ भी मिलते थे. संयुक्त परिवार से भावनात्मक और वित्तीय सुरक्षा मिलती थी. साथ ही सामाजिक संपर्क और बड़ों से सीखने के अधिक अवसर मिलते थे. अब एकल परिवारों और सिंगल पेरेंट्स के कारण मिलजुलकर रहने और बांट कर खाने की प्रवृत्ति तो खत्म हुई ही है, बच्चों की सारी जिम्मेदारियां माता-पिता को ही वहन करना पड़ता है. माता-पिता दोनों वर्किंग होने के कारण बच्चों की सभी आर्थिक जरूरतें तो आसानी से पूरी हो जाती हैं, लेकिन दोनों के पास समय का अभाव होने के कारण बच्चा खुद को भावनात्मक रूप से अकेला पाता है. कई बार माता-पिता में से किसी एक के बच्चे के साथ रहने पर बच्चे खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं. साथ ही कोई गलत काम करने से भी डरते हैं. घर पर दोनों में से किसी एक के भी मौजूद नहीं रहने पर बच्चे कोई भी काम करने के लिए खुद को आज़ाद पाता है. नतीजतन उनसे कई बार अपराध भी हो जाता है.
असल में पेरेंटिंग कोई एक दिन का काम नहीं, यह एक यात्रा है, जिसमें भावनाएं, समझ, धैर्य और संवाद सबका मेल होता है.
सोशल मीडिया, स्कूली दबाव, ऑनलाइन क्लासेस, और रिश्तों में संवादहीनता के कारण आज पेरेंटिंग पूरी तरह बदल चुकी है.
सोशल मीडिया का प्रभाव
सोशल मीडिया के दौर में पेरेंटिंग में काफ़ी बदलाव आ चुका है. इसका असर बच्चों से किए जाने वाले संवाद, उनके विकास और पेरेंट्स और बच्चों के बीच के रिश्ते पर भी पड़ा है. माता-पिता अब बच्चों के लिए जरूरी सलाह और यहां तक कि रिश्तेदारों-दोस्तों से जुड़ाव के लिए भी ऑनलाइन फ़ोरम, समूहों और सोशल मीडिया की ओर रुख करने लगे हैं. अक्सर माता-पिता बाल विशेषज्ञों से भी मार्गदर्शन सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर मांगने लगे हैं. व्हाट्सएप जैसे डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म का उपयोग पारिवारिक बातचीच, विस्तृत ऑनलाइन परिवार से जुड़ने और जानकारी साझा करने के लिए किया जाता है. ध्यान रखें कि इससे कभी-कभी ग़लतफ़हमी या आपसी संवाद की भी कमी हो सकती है.
बच्चों के विकास पर भी सोशल मीडिया का प्रभाव पड़ सकता है. बच्चे कम उम्र में सोशल मीडिया सहित अन्य तकनीक के संपर्क में तेज़ी से आ रहे हैं, जो उनके विकास को प्रभावित कर सकता है. यह संभावित रूप से बच्चों में होने वाली मानसिक समस्या का जिम्मेदार भी हो सकता है.
सोशल मीडिया से जुड़े बुरे प्रभाव से बचने के लिए माता-पिता को स्क्रीन टाइम और ऑनलाइन गतिविधियों की स्पष्ट सीमा तय करनी चाहिए. तकनीक के उपयोग को संतुलित करने के साथ-साथ आमने-सामने की बातचीत के महत्व पर जोर देना चाहिए. यह सच है कि माता-पिता को डिजिटल पेरेंटिंग से संबंधित नई जानकारी रखनी भी जरूरी है, ताकि डिजिटल युग में बच्चों का मार्गदर्शन किया जा सके.
स्कूल का दबाव
हाल में 10वीं बोर्ड के एक बच्चे ने इसलिए आत्महत्या कर ली, क्योंकि उसके दोस्त ने 97 प्रतिशत से अधिक अंक लाए और वह नहीं ला सका. वास्तव में स्कूल और पढ़ाई का दबाव बच्चों और माता-पिता दोनों पर है. इसने पेरेंटिंग को काफी हद तक बदल दिया है. पहले की अपेक्षा अब ग्रेड और उपलब्धि पर अधिक ध्यान दिया जाता है. इसके कारण मां-पिता इस दबाव में जीने लगे हैं कि उनका बच्चा पढ़ाई के क्षेत्र में सर्वोत्तम करे. हालांकि इन सभी के बावजूद माता-पिता के पास अब अधिक संतुलित दृष्टिकोण अपनाने के अवसर हैं, जो बच्चे की समग्र भलाई और मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देता है. इस बदलाव में इमोशनल सपोर्ट पर अधिक जोर देना, अभिभावक-बच्चे के रिश्ते को बढ़ावा देना, सकारात्मक सोच को बढ़ावा देना और बच्चे की व्यक्तिगत जरूरतों और रुचियों को समझना भी शामिल है.
ऑनलाइन शिक्षा ने किया गर्क
ऑनलाइन शिक्षा ने पेरेंटिंग को काफी प्रभावित किया है. इससे माता-पिता को पढ़ाई में सहायक का काम करना और ऑनलाइन कनेक्टिविटी के प्रबंधक के रूप में नई भूमिका निभानी पड़ रही है. माता-पिता को अब ऑनलाइन शिक्षा की सुविधा प्रदान करने, स्क्रीन समय का प्रबंधन करने और यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि उनके बच्चे बढ़ते तनाव की अवधि के दौरान व्यस्त और मानसिक रूप से स्वस्थ रहें. इसका मतलब यह भी है कि घर और ऑफिस की ज़िम्मेदारियां बच्चों की शिक्षा और उनके व्यक्तित्व विकास को प्रभावित नहीं करे.
संवादहीनता का प्रभाव
इन दिनों मोबाइल पर माता-पिता और बच्चे का अत्यधिक समय बीतने के कारण दोनों के बीच संवादहीनता की स्थिति पैदा हो जाती है. यह बच्चों के पालन-पोषण को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती है. इससे माता-पिता की भागीदारी कम हो सकती है, गलतफहमियां पैदा हो सकती हैं और भावनात्मक दूरी हो सकती है. यह बच्चों के विकास और पारिवारिक स्थिति को भी प्रभावित करता है.
हर समय सलाह देने की बजाय बच्चे की सुनें
बच्चे को सुनना सबसे बड़ी समझदारी है. हर समय सलाह देने या सुधारने की बजाय उसकी भावनाओं को समझें. उसकी भावना को रेगुलेट करें. इसके लिए बच्चे की भावनाओं को नोटिस करना, समझना और फिर उसे समय की मांग के अनुसार मैनेज करना जरूरी होता है. इससे बच्चा मानसिक तौर पर स्वस्थ होगा. बच्चों को भी इमोशन रेगुलेशन स्किल सिखाना चाहिए. इससे बच्चों के व्यक्तित्व में लचीलापन, स्कूल में सफलता, उन्नत सामाजिक कौशल और मानसिक स्वास्थ्य के जोखिम को कम करने में भी मदद मिल सकती है. बच्चों की भावनाओं को बेहतर ढंग से समझने के लिए बच्चे के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करें. उनकी किसी बात पर उन्हें गले लगाएं, उनकी बातों का गर्मजोशी के साथ उत्तर दें, उनकी बातों को स्वीकार करें और हमेशा उनकी बात को रुचि के साथ सुनें. उनकी बातों के प्रति जिज्ञासु बनें. बच्चे अपने क्रियाकलापों, ध्वनियों और शब्दों के माध्यम से आपको जो कुछ भी बताते हैं, उसे पूरी तरह से सुनें.
डॉ ईशा सिंह, क्लिनिकल साइकोलोजिस्ट, दिल्ली
असफलता को समझें महान शिक्षक
असफलता मिलने पर माता-पिता बच्चों को डरायें नहीं और बच्चे भी डरें नहीं. असफलता को महान शिक्षक की तरह समझना चाहिए. बच्चे उनसे सीखें और अभिभावक बच्चों को सीखने दें. जीवन में सफलता और असफलता दोनों जरूरी हैं. यह आपको परिपक्व बनाता है. माता-पिता कभी-भी "अपने बच्चे की तुलना दूसरे बच्चों से नहीं करें. बच्चों में अपने माता-पिता को अपनी असफलताओं के बारे में बताने का आत्मविश्वास होना चाहिए. यह आत्मविश्वास मां-पिता ही पैदा करते हैं.
सुधा मूर्ति, लेखिका और इनफ़ोसिस संस्थापक
आपकी और आपके बच्चे की परवरिश में दो दशक से भी अधिक समय का अंतर आ गया है. इसलिए बच्चों पर यह बात कभी नहीं लादें कि बचपन में आपने ऐसा किया, तो आपके बच्चे भी वैसा ही करें. इस जेनरेशन गैप को ढेर सारी सलाह देकर नहीं, बल्कि उन्हें स्वतंत्र होने का एहसास दिलाकर कम करें. उन्हें उपदेश देने की बजाय भावनात्मक उपलब्धता और सहारा बनें. माता-पिता को अपने बच्चों के इमोशनल वेलनेस को शिक्षा से ज़्यादा प्राथमिकता देनी चाहिए. अपने बच्चों के अनुभवों को सुनने और समझने के लिए भावनात्मक रूप से अभिभावक को उपलब्ध होना चाहिए. पीढ़ीगत पैटर्न को तोड़ कर पालन-पोषण के लिए एक नए दृष्टिकोण को अपनायें. अपने बच्चों के प्रति जागरूक बनें.
तनाज़ ईरानी, अभिनेत्री
जेनरेशन गैप का रोड़ा नहीं अटकाएं
हमारे जमाना संयुक्त परिवार का था. बच्चे को दादा-दादी, ताऊ-चाचा का खूब प्यार मिलता था. माता-पिता अपने बच्चे को अभिभावक के सामने गोद में लेकर खिलाने में भी संकोच करते थे. अब ऐसा नहीं है, जो अच्छा भी है. बच्चों की परवरिश में जेनरेशन गैप का रोड़ा नहीं होना चाहिए.
काशीनाथ सिंह, वरिष्ठ कथाकार
बच्चे को करियर चुनने में सपोर्ट करें
बच्चे पहले अपने मन की बात कहने से डरते थे. उनके ख्वाब मन में दबे रह जाते थे. आजकल के बच्चे जिस क्षेत्र में करियर बनाना चाहते हैं, वे झट से बता देते हैं. मेरा बेटा मोर्विन वकारे एक्टिंग वर्ल्ड में जाना चाहता था. उसने हमें बताया और हमलोगों ने उसे सपोर्ट करने के लिए हर तरह से कोशिश की. आज वह मॉडल और एक्टर है. वह कई टेली सीरियल में काम कर चुका है.
सोनाली वकारे, बाल कलाकार मोर्विन की मां
पेरेंट्स को अब ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है
इन दिनों बच्चे मोबाइल और सोशल साइट के युग में पैदा हो रहे हैं. शहरी क्षेत्रों में ज्यादातर पेरेंट्स वर्किंग हैं. ऐसी स्थिति में उन्हें बच्चे को बड़ा करने में ज्यादा मेहनत करनी पड रही है. उन्हें बच्चों को न सिर्फ सोशल साइट्स से जरूरी दूरी बनाकर रखनी पड़ रही है, बल्कि सोशल साइट्स के टूल्स और अन्य तकनीकी गजेट से भी बच्चों को रूबरू कराना पड़ रहा है, ताकि अन्य बच्चों की तुलना में वे पिछड़ न जाएं.
श्वेता, नई बनी मां
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